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Sunday, 21 June 2020

जाने कैसे ये नेता है

जाने कैसे ये नेता है 
        जो औरों का क्रेडिट खाते हैं
औरों के हिस्से का खा 
        न जाने कैसे पचा जाते हैं
जाने कैसे ये नेता हैं 
       जिनसे कुछ भी सुलझता नहीं
सभाओं में गुंडागर्दी बदमाशी को 
       नेतागिरी बतलाते हैं
बरसाती मेंढकों से 
      कुछ तो र्टर र्टर करने आएंगे
जाने कैसे निष्पक्ष बता 
      एक पक्ष से ही टर्राते हैं
भलाई के नाम पर अब तक 
       सिर्फ क्रेडिट चुराया है
न जाने कैसे नेता हैं 
       चोरी पर भी इतराते हैं
झूटी बात बनाने में इन 
       नेताओं का कोई तोड़ नहीं
न जाने कैसे नेता हैं 
       दूसरे की गिना, रोते ही जाते हैं

--लिपिका 

Wednesday, 13 March 2019

मैं युद्ध कब चाह रहा था

शांत, प्रसन्न, निर्भय मैं तो मग्न मदमस्त जा रहा था 
तुम ही कहो, मेरे प्रिय मैं युद्ध कब चाह रहा था 

सोच रहा था घर जा कर, माँ के हाथ का खाना खाऊँगा 
पत्नी के नख़रे उठा, बच्चों से लाड़ लड़ाऊँगा 
बस इतनी सी मेरी इच्छा थी, बोलो क्या मैं ग़लत चाह रहा था 
तुम ही कहो, मेरे प्रिय मैं युद्ध कब चाह रहा था।

पिता ने लिखा था घर जा, अब आँखो से दिखायी नहीं देता 
चलते फिरते टकराता हूँ, अब राह सुझाई नहीं देता 
सोच रहा था घर पहुँच इस बार, आँखे उनकी बनवाऊँगा 
आँख बनवाता, लाड़ लड़ाता, मन ही मन मुसकाता,
कुछ सपने बुनता कुछ मिटाता मैं तो बस बढ़े जा रहा था 
तुम ही कहो, मेरे प्रिय मैं युद्ध कब चाह रहा था 

अपनी ज़िम्मेदारियों को तौलता, कुछ को नीचे रखता तो कुछ को ऊपर लाने को टटोलता 
घाटी में शांति बनाए रखने को, दोस्तों के साथ हँसता मुस्कराता मैं तो बस गीत अमन प्रेम के गा रहा था 
तुम ही कहो, मेरे प्रिय मैं युद्ध कब चाह रहा था 

तभी अचानक एक विस्फोट ने मेरा स्वप्न संसार हिला दिया 
मेरे अधबुने सपनों को सदा की नींद सुला दिया 
मित्र सखा जो स्वस्थ समक्ष खड़े थे, उनका चिथड़ा चिथड़ा उड़ा दिया
एक शांति दूत ने बारूद से भरा वाहन, हमारे वाहन से टकरा दिया।

रक्त रंजित थी माँ भारती और टुकड़े टुकड़े था मैं पड़ा 
हाथ गिरा था कहीं, तो था कुछ दूरी पर मेरा पाँव पड़ा 
देख रहा था धूँवा धूँवा, मैं ऊपर कुछ दूर खड़ा
चार कंधो पर जाती दुनिया, मैं पोलिथिन बैग में समा रहा था 
तुम ही कहो, मेरे प्रिय मैं युद्ध कब चाह रहा था 

फ़ौजी हूँ सम्मान से जिया, सीने पे गोली खा सम्मान से मरूँगा 
ऐसे अंत की ना कामना की थी, समेटा भी ना जा सके शरीर का ऐसा हाल तो मैं ना चाह रहा था 
मैं तो रहा श्वेत पताका लहराता, वो युद्ध बिगुल बजा रहा था
तुम ही कहो, मेरे प्रिय मैं युद्ध कब चाह रहा था 


हेम

Saturday, 21 July 2018

मेरा बेटा कभी इतना बड़ा ना हो

ऊँगलियाँ भले ही बदल जाएँ 
वो थामे या मैं थामूँ
पर हाथ छोड़ भाग जाए 
मेरा बेटा कभी इतना बड़ा ना हो।

अपनी बात मनाने को 
भले ही मुझसे झगड़ जाए 
पर बात मनाने को बात करना छोड़ दे
मेरा बेटा कभी इतना बड़ा ना हो।

उसकी जेब खर्ची से मेरी जेब खर्ची तक 
देने वाली जेब भले ही बदल जाए 
पर पैसे की वजह से प्यार छोड़ दे 
मेरा बेटा कभी इतना बड़ा ना हो। 

मेरे कंधो से उसके कंधो तक 
ज़िंदगी चाहे कितनी भी बदल जाए 
ज़रूरतें निभाते,अपनी फज़िम्मेदारियाँ भूल जाए 

मेरा बेटा कभी इतना बड़ा ना हो।

हेम 

आज़ादी तब और आज


आज़ादी - तब और आज


आज के परीवेश में देखो आज़ादी की परिभाषा कितनी बदल गयी

देश प्रेम में तब युवाओं के खून खौला करते थे 
आज़ादी पाने को तब इंक़लाब जिंदाबाद के नारे बोला करते थे 
दुश्मन से लोहा लेने को तब महारानी की तलवार मचलती थी
आत्म सम्मान की ख़ातिर वीरबालाएँ ज़िन्दा जौहर में जलती थी
आज़ादी की ख़ातिर राजगुरू, सुखदेव, भगतसिंह हँसते हँसते फांसी झूले थे 
आखिरी साँस तक आज़ाद, तिलक ना अपना वादा भूले थे 

आओ बात करें आज आज़ादी की जो बिना दाम के मिल गई 
शायद इसीलिए उसकी आज परिभाषा भी बदल गयी 
आज युवाओं की रगों में देशद्रोह दौड़ा करता है 
इसीलिए विद्या के मंदिर में खड़ा हो वह भारत तोडा करता है 
आज युवाओं के खून में राजनीती उबाल मारती है 
भारत तेरे टुकड़े होंगे चीख चीख पुकारती है 
आज खड़ा हो चौराहों पर वो गरीबी से आज़ादी चाहता है 
कर्म की शिक्षा भूल, आरक्षण को सर्वोत्तम हथियार बताता है 
काँधे पर हथियार उठाये भाई भाई को मारा करता है 
निर्दोषो की हत्याओं को जंग आज़ादी कहता फिरता है 

मैं पर केंद्रित रह गया युवा अब, तर्कशक्ति उसकी विफल हुई 
आज के परीवेश में देखो आज़ादी की परिभाषा कितनी बदल गयी
आज़ादी की परिभाषा कितनी बदल गयी

हेम