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Monday, 27 February 2017

ज़िंदगी के हसीन लम्हे !!!!!!!!

आज सुबह ग़लती से जल्दी उठ गयी 
लेकिन बहुत जल्दी भी नहीं ...,
पर एक बात है जल्दी उठ कर अच्छा बहुत लगा 
हल्की सी सर्दी ,कुनकुनी सी धूप, सरसराती सी हवा 
और लहराते हुए पेड़ पोधे....
ये सब तो मेरा दिल ही ले गए 
कुछ लमहें, कुछ पल, कुछ ऐसा सा आभास 
जैसे ख़ुद को ख़ुद से मिली थी काफ़ी मुद्दत के बाद 
ऐसा लगा कि एक पल में कई पल एक साथ जी लिए 
क़ुदरत के इस जादू ने तो जैसे मेरा मन ही मोह लिया 
ख़ुद से और ज़िंदगी से पहले से ज़्यादा प्यार सा हो गया 
ऐसा लगा कुछ खोया सा फिर से पा लिया हो 
ऐसा लगा ये अहसास  शायद कुछ सीखाने को आया हो 
बड़ी बड़ी ख़्वाहिशों की चाहत के चलते 
जैसे छोटे छोटे लम्हे नज़रान्दाज से हो गए हो 
बड़े बड़े सपनों कि चकाचौंध के चलते 
जैसे ये लम्हे धुँधला से गए हो 
आज ख़ुद से मिल कर और इन लम्हों को फिर से जी कर 
बरसो पुरानी धूल आज इन लम्हों से झड़ गयी सी  लगती है 
ज़िंदगी अब तो फिर से नयी नयी सी लगती है 
अब तो हर लम्हा इबादत सा लगने लगा है 
ज़िंदगी तुझ से और ज़्यादा प्यार होने सा लगा है 
Anuyog

Thursday, 23 February 2017

वो अहसास अपना सा .........

वो अहसास अपना सा .........

एक ज़माना था जब अपने Family और Friends के Birthday और Aniversary याद रखा करते थे 
पर अब ये काम social media ने संभाल लिया है 
किसी भी special day से कुछ दिन पहले या same day उसका notificationआ जाता है या कोई group में से ही कोई remind करा देता है .......
भूलने के chances ज़रा कम ही रहते है 
एक वक़्त था अगर ऐसा कुछ भूल जाओ 
तो फिर आप समझ जाओ की वो तो गया ....
और ख़ास कर पतिदेव भूल गए तो ........;)
फिर हो गया .........
और फिर वो मान मनुहार वो माफ़ी 
वो tension का सा माहौल 
अब madam कब मानेगी ....
अब ये तो पति के skills पर ही depend होता था 
कितने समय तक कौन किस पर हावी 
एक बड़ा सा माफ़ीनामा
और एक भारी भरकम सा हर्ज़ाना 
लेकिन कुछ भी हो वो वक़्त ही कुछ अलग था 
वो रूठने मनाने का अहसास भी जुदा था 
ख़ास ख़ास कुछ लोग ही मुबारक देते थे 
उसके जज़्बात भी कुछ जुदा से होते थे 
वक़्त बदल गया है 
Face to face की जगह Face book का ज़माना हो गया है 
ये भी अच्छा है 
पर उसका अहसास तो आज भी कुछ special सा है
AnuYog 

Wednesday, 22 February 2017

*मेरी चाय*




*मेरी चाय*

माँ कहती है कि मैं चाय बहुत पीती हूँ
पर उन्हें क्या पता मैं चाय नहीं पीती हूँ,
बस ज़िंदगी को चुसकियों में पी थोड़ा और जी लेती हूँ
चाय जगाती भी है और सुलाती भी है 
हँसाती भी है रुलाती भी है 
ठंडी में गरमी का एहसास देती है 
तो कभी गरमी में राहत का एहसास देती है 
थकने पर सुकून का एहसास देती है
तो कभी परेशानी में हँसने का साहस देती है
कभी कभी सोच में पड़ जाती हूँ
क्या मैं चाय बहुत पीती हूँ
नहीं मैं चाय बहुत नहीं पीती, चाय के बहाने थोड़ा और जी लेती हूँ
और कभी कभी चाय के बहाने दोस्तों के साथ हाल ए दिल भी बाँट लेती हूँ
AnuYog 

Tuesday, 21 February 2017

हाँ! रंग चढ़ा है मुझ पर मेरी जीत का।

एक बार फिर आप  सब के समक्ष मेरे कुछ विचार जो है आज बेटियों को समर्पित। बेटियाँ जिनके आ जाने से भर जाती है घर मे उर्जा।

हाँ! रंग चढ़ा है मुझ पर मेरी जीत का......

हाँ! रंग चढ़ा है मुझ पर मेरी जीत का,
हाँ! कर दिखाया है मैंने अपने वजूद का सर ऊँचा,
हाँ!  कर दिया है साबित मैंने कि मै भी हूँ जिन्दा,
हाँ!  मै हूँ एक बेटी जिसने लगा दिया है चाँद की चाँदनी पर तमग़ा।

अब नही रूकूँगी मै,
अब नही झुकूँगी मै,
दिखाऊंगी अब अपना हुनर
तूफानो मे पड़ी धूल को झाड़ कर।

हाँ! रंग चढ़ा है मुझ पर मेरी जीत का।

लाचारीयत अब न घेर पाएगी मुझे,
बेचारगी अब न दे पाएगी पनाह मुझे,
दिया है मेरे माँ बाबा ने भरोसा मुझे,
दिखाऊंगी अब अपना हुनर तूफानो मे पड़ी धूल को झाड़ कर।

हाँ रंग चढ़ा है मुझ पर मेरी जीत का.....

अब कभी बुझ न पाए लौ कभी कन्या के भूण की
करती हूँ आश्वस्त लेकर आऊंगी मै क्रान्ति ऐसे हुजूम की जो लेकर चलेगी मशाल मेरे वजूद की।

हाँ! कर दिया है साबित मैंने कि मै हूँ जिन्दा,
हाँ! मै हूँ एक बेटी जिसने लगा दिया है चाँद की चाँदनी पर तमग़ा।

लीना निर्वान

अनुभव

आप सब के समक्ष एक बार फिर मेरे  जीवन का अनोखा अनुभव। 😊

जाड़ों की धूप में
पसार कर अपना ही अनुरूप मैं,
बंद कर चक्षुओं को,
थी कही शून्य मे मैं।

तेज था सूरज का चहूं ओर
जिसके मध्य खड़ी थी अंधकार में मैं अबोध।

महसूस करना चाहती थी
उस तेज को मैं,
पर बोध नहीं था कब, किस तरह पहुंच पाऊंगी उस तेज के समीप मैं।

यूं तो है संवास  मे मेरे अपने
लेकिन फिर भी है तृष्णा कहीं,
जानना चाहती हूं  क्या है उस ओर
जो बुला रहा है मुझे शून्य से अपनी ओर।

जिसका है अथाह प्रकाश
जिसने रंग दिया है 'लाल'
ये नीला आकाश।

बंद कर चक्षुओं को
थी कही शून्य मे मैं
तेज था सूरज का चहूं ओर
जिसके मध्य खड़ी थी अंधकार में मैं अबोध।

लीना निर्वान

अनमोल उपहार

आप सब के समक्ष ....

अनमोल उपहार

सृष्टि का ये अजब खेल था
जब हमारा हुआ मेल था।

याद है मुझे आज भी वो दिन जब
बस यूँही कर रहे थे तुम मेरा इन्तज़ार,
जब मैंने दिया था तुम्हारे हाथो मे अपना हाथ।

बीत गया था पूरा दिन यूँ ही सुनते सुनाते तुम्हारे मन की बात,
पकड़ कर मेरा हाथ शायद ढूंढ रहे थे मेरी और अपनी लकीरों मे जुड़ते हमारे भविष्य का सार।

तभी तो मौन रह कर तुमने किया था
मन ही मन विचलित होते हुए मेरा
सालों-साल इन्तज़ार ।

तुम से मिल कर मुझे हुआ कुछ ऐसा ऐहसास मानो सृष्टि ने दिया हो मुझे मेरा अनमोल उपहार ।

उदार मन, शांत चित और धीरज है तुम मे अपार,
सृष्टि ने दिया मुझे मेरा सबसे अनमोल उपहार ।

भिन्न थी आदते हमारी,  भिन्न थे विचार
तब भी विधाता ने जोड़ दिए हमारे मन के तार ।

अब ले चलो मुझे बन कर सारथी मेरे
क्योंकि जीत लिया है मन मेरा तुम ने बन कर मेरा विधाता, मेरा मान, मेरा  अभिमान ।

नतमस्तक हूँ मैं ईश्वर के सामने जिन्होंने मिला दिया हमें, बना कर तुम्हे कृष्ण और मुझे राधा का अवतार ।

लीना निर्वान 🙏🏼😊

Wednesday, 15 February 2017

क्या से क्या हो गए

ढूंढते हैं उसको जिसे कहीं छोड़ आए हैं
वो मुस्कराहट, वो बेबाकपन जो कहीं भूल आए हैं
कई चेहरों का नक़ाब ओढ़े असल से जुदा हो गए
ज़िन्दगी आगे बढ़ गयी हम क्या से क्या हो गए

माथे से लेकर बिस्तर की सिलवटें जो मेरी थीं
वो चैन, वो ठहाके, वो नींदें जो मेरी थीं
कई ख्वाइशों के बोझ के तले रुबा हो गए
ज़िन्दगी आगे बढ़ गयी हम क्या से क्या हो गए

ख्यालों से लेकर हौसलों की तिशनगी थी मेरी
उन्हें पूरा करने न करने की आज़ादी थी मेरी
कई हौसलों के ज़ोर में बेनिशाँ हो गए
ज़िन्दगी आगे बढ़ गयी हम क्या से क्या हो गए

यूँ नहीं के ज़िन्दगी से कोई शिकवा है हमें
इस डोर, इस बंदिश का भी दरकार है हमें
कई आहटों के शोर में बेज़ुबान हो गए
ज़िन्दगी आगे बढ़ गयी हम क्या से क्या हो गए