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Wednesday, 13 March 2019

मैं युद्ध कब चाह रहा था

शांत, प्रसन्न, निर्भय मैं तो मग्न मदमस्त जा रहा था 
तुम ही कहो, मेरे प्रिय मैं युद्ध कब चाह रहा था 

सोच रहा था घर जा कर, माँ के हाथ का खाना खाऊँगा 
पत्नी के नख़रे उठा, बच्चों से लाड़ लड़ाऊँगा 
बस इतनी सी मेरी इच्छा थी, बोलो क्या मैं ग़लत चाह रहा था 
तुम ही कहो, मेरे प्रिय मैं युद्ध कब चाह रहा था।

पिता ने लिखा था घर जा, अब आँखो से दिखायी नहीं देता 
चलते फिरते टकराता हूँ, अब राह सुझाई नहीं देता 
सोच रहा था घर पहुँच इस बार, आँखे उनकी बनवाऊँगा 
आँख बनवाता, लाड़ लड़ाता, मन ही मन मुसकाता,
कुछ सपने बुनता कुछ मिटाता मैं तो बस बढ़े जा रहा था 
तुम ही कहो, मेरे प्रिय मैं युद्ध कब चाह रहा था 

अपनी ज़िम्मेदारियों को तौलता, कुछ को नीचे रखता तो कुछ को ऊपर लाने को टटोलता 
घाटी में शांति बनाए रखने को, दोस्तों के साथ हँसता मुस्कराता मैं तो बस गीत अमन प्रेम के गा रहा था 
तुम ही कहो, मेरे प्रिय मैं युद्ध कब चाह रहा था 

तभी अचानक एक विस्फोट ने मेरा स्वप्न संसार हिला दिया 
मेरे अधबुने सपनों को सदा की नींद सुला दिया 
मित्र सखा जो स्वस्थ समक्ष खड़े थे, उनका चिथड़ा चिथड़ा उड़ा दिया
एक शांति दूत ने बारूद से भरा वाहन, हमारे वाहन से टकरा दिया।

रक्त रंजित थी माँ भारती और टुकड़े टुकड़े था मैं पड़ा 
हाथ गिरा था कहीं, तो था कुछ दूरी पर मेरा पाँव पड़ा 
देख रहा था धूँवा धूँवा, मैं ऊपर कुछ दूर खड़ा
चार कंधो पर जाती दुनिया, मैं पोलिथिन बैग में समा रहा था 
तुम ही कहो, मेरे प्रिय मैं युद्ध कब चाह रहा था 

फ़ौजी हूँ सम्मान से जिया, सीने पे गोली खा सम्मान से मरूँगा 
ऐसे अंत की ना कामना की थी, समेटा भी ना जा सके शरीर का ऐसा हाल तो मैं ना चाह रहा था 
मैं तो रहा श्वेत पताका लहराता, वो युद्ध बिगुल बजा रहा था
तुम ही कहो, मेरे प्रिय मैं युद्ध कब चाह रहा था 


हेम