आप सब के समक्ष एक बार फिर मेरे जीवन का अनोखा अनुभव। 😊
जाड़ों की धूप में
पसार कर अपना ही अनुरूप मैं,
बंद कर चक्षुओं को,
थी कही शून्य मे मैं।
तेज था सूरज का चहूं ओर
जिसके मध्य खड़ी थी अंधकार में मैं अबोध।
महसूस करना चाहती थी
उस तेज को मैं,
पर बोध नहीं था कब, किस तरह पहुंच पाऊंगी उस तेज के समीप मैं।
यूं तो है संवास मे मेरे अपने
लेकिन फिर भी है तृष्णा कहीं,
जानना चाहती हूं क्या है उस ओर
जो बुला रहा है मुझे शून्य से अपनी ओर।
जिसका है अथाह प्रकाश
जिसने रंग दिया है 'लाल'
ये नीला आकाश।
बंद कर चक्षुओं को
थी कही शून्य मे मैं
तेज था सूरज का चहूं ओर
जिसके मध्य खड़ी थी अंधकार में मैं अबोध।
लीना निर्वान
अति सुंदर
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