यूं उजाड़ है मेरा गाँव सूनी है मेरी छानी
के कभी ठिठोलियाँ बसती थी यहाँ
कभी अखरोट की छाल सी सख्त थी नींव इसकी
अब पिता की बस याद रह गयी है जहाँ
यूँ बिखरी है मेरे घर की पहचान
कि खिलता था कभी फूलों सा व्यक्तित्व यहाँ
मिलती थी पगडंडी में दादी की बेंत और दरांत
देवता की ज्योति करती घर घर दीप्तिमान जहाँ
यूँ खोई सी है मेरे खेतों की रौनक
के छेम्मी, मटर से फूलता था सीना इसका
कुछ देर रुक बादल भी आनंदित हो उठता था
गर्म हवा भी पानी सी भिगोती थी जहाँ
तकती है आस में उन मुस्कुराहटों की
यादें भी धुंधलाती जा रही हैं यहाँ
बूढ़ी हो चली हैं घर की आंखें, चार दीवारी
थमती जा रहीं हैं बाड़े की सांसें जहाँ
कुछ देर और रुक के बटोर लूं वो पल
बस किस्सों में सुने थे जो वहाँ
खुल के कुछ और साँसें भर लूँ
न जाने फिर कब आना हो यहाँ
शायद हम सब का गांव ऐसा है था और आज उजाड़ है, विशेषत: पहाड़ी इलाके से संबंध रखने वालों का।
ReplyDeleteVery nicely penned lipika. It touches the heart and soul too. It forced me to think on what can be done but finding myself helpless. The reason could be materialistic.
Any way ......this writing is really fanstatsic
धन्यवाद
DeleteNostalgic and very well written
ReplyDeleteलाजवाब....
ReplyDeleteज़हनसीब
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