मेरे बचपन का शहर
मुझे देख
खिल उठी और लिपट गयी मुझसे,
वो कोई और
नहीं उस पेड़ की डाल थी जिसे बचपन में सींचा था मैंने,
इस जगह की
मिट्टी की महक कुछ अलग ही है,
यहीं पड़ना
और लिखना सीखा था मैंने,
आज आख़िर
उस शहर आ ही गया मैं,
जिसे कुछ
पाने की हस्र में पीछे छोड़ा था मैंने,
अब तो यादें
भी बूढ़ी हो चली हैं,
उनके चेहरे
की झुर्रियों से यह जाना मैंने,
जिन पेड़ो
की साख में कभी रखते थे कंचे
आज उन्ही
साखों पर सांपो का डेरा देखा मैंने,
एक समय था
जब दूर घाटी से सुनाई देती थी बांसुरी की धुन
उन्ही घाटियों
से आज गाड़ियों का शोर सुना मैंने,
अनगिनत तारों
से घिरा था मेरे बचपन का आसमान,
उसी आसमाँ
में आज तारों को गिना मैंने,
वो भी एक
सूरज था जो करता था मेरा इंतज़ार,
आज उसी सूरज
को अपनी आँखों से ओझंल होते देखा मैंने,
सांझ होते
होते खा लेते थे खाना कहीं भी,
आज उसी शहर
में खरीद कर पानी पिया था मैंने,
जहाँ गिरते
ही थाम लेते थे हज़ारों दामन,
वहीँ आज बहुत
अकेला महसूश किया मैंने,
यह मेरे बचपन
की यादें थीं,
जिन्हें जवानी
भर जिया था मैंने,
यह शहर आज
भी मुझे उतना प्यारा हैं,
जहाँ पर सच
में अपना जीवन जिया था मैंने।
जहाँ पर सच में अपना जीवन
जिया था मैंने।
बदलते शहर में फिर भी कहीं हमारे कुछ अंश रह जाते हैं। बोहोत सुन्दर
ReplyDeleteबदलते शहर में फिर भी कहीं हमारे कुछ अंश रह जाते हैं। बोहोत सुन्दर
ReplyDeleteThanks Lipika ji
ReplyDeleteसच में गीली मिटटी की खुशबु बसी है इस कविता में. अति सुंदर....
ReplyDeleteThanks Kavita ji.
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