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Monday, 19 September 2016

तुम नज़र ना आयें

तुम नज़र ना आयें

मंज़िलें वहीं।
रास्ते पहचाने से।
मगर तुम नज़र ना आयें।

हवा की महक भी वैसी हैं।
परछाइयाँ भी वैसी हैं।
पलट कर देखा बहुत बार।
मगर तुम नज़र ना आयें।

चाँद आज भी निकलता है।
रातें अब भी वैसी हैं।
इन चाँदनी रातों में।
मगर तुम नज़र ना आयें।

सपने आज भी दिखतें हैं।
दिल आज भी धड़कता है।
इन सपनों में भी।
मगर तुम नज़र ना आयें।

शायद जीने के मायने बदल गए है।
हमारे तुम्हारे।
वोहि मंज़िलें वोहि रास्ते।
बस साथी बदल गए है।
तुम्हारे हमारे।

ज़िंदगी से कोई सिकवा नहीं।
बहुत कुछ दिया है इसने।
तुझको मुझको।
उन मीठी सी यादों के सहारे।
जीना होगा।
मुझको तुझको।

पर अब तो यादें भी हो चली है बूढ़ी।
और बदल सा गया है सबकुछ।
शहर तो अपना ही है।
मगर तुम नज़र ना आयें।

यारों की हर महफ़िल में ज़िक्र होता था तेरा।
हर बात पर बात होती थी तेरी।
कुछ दिनों से इन महफ़िलों में।
मगर तुम नज़र ना आयें।

सोचा था आज कह ही दूँगा।
तुमको अपने दिल की बात।
बहुत ढूँढा तुमको ख़यालों में भी।
मगर तुम नज़र ना आयें।

5 comments:

  1. :D अजय जी आखिर कौन है वो। बोहोत उम्दा। कुछ कुछ पंक्तियाँ तो बोहोत ही सुन्दर हैं।

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  2. bahut sundar likha hai aapne ajay ji.

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  3. धन्यवाद सीमा जी।

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  4. तुम न आये मगर दीप जलता रहा, वाह अजय जी!

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