एक गांव जो बसता है कहीं यादों मे मेरी
जहाँ अटखेलियां करती थीं गर्मी की छुटियाँ कई
पहाड़ों की ओट में वो खुशबूदार आम के बगीचे
वो घंटाघर टेहरी का वो शाम को भूतों के किस्से
खुला मैदान जो मिलता पथरीली सी पगडण्डी पे
और जा समाता था निडर बहती भागीरथी में
याद आता है गर्मी की बारिश में वो भीग जाना
नमक और प्याज़ चुरा कर कच्चे आम संग खाना
यूँ अचानक कभी आ जाता है याद ननिहाल पहाड़ों का
कहते हैं अब शीशे से पानी की तह से घंटाघर है तकता
है ढूंढता वो खोये चेहरे, नन्हे चेहरे
जो आते थे गर्मी की छुट्टियाँ बिताने को
शायद मिल जाएँ आज भी अठखेलियां करते
सरकारी बस से गुज़र पाऊँ, कभी जाऊँ तो
वाह लिपिका, कितनी सहजता से लिखा है तुमने गर्मी की छुट्टियों का किस्सा, मन वापस बचपन में जाने को मचल उठा।
ReplyDeleteधन्यवाद कविता जी
Deleteअरे वाह!बचपन की यादों की बस एक झलक दिखाई। मन तरस ज़रूर गया लेकिन मचला नहीं, बस यादों के पंख लगा कर उड़ गया और उन विस्मृत गलियों को पहचानने की कोशिश कर रहा है।थोड़ा और विस्तार से भेंट करानी थी अपने बचपन से। Good show.
ReplyDeleteकोशिश जारी रहेगी :)
Deleteलिपिका जी बहुत ही बढ़िया वर्रण किया है आपने अपने गांव का. पहाड़ो में शाम के वक्त भूतो के किस्से बड़ी आम बात है. टिहरी का घंटाघर पानी की तह में - दिल को छु गए यह शब्द.
ReplyDeleteबचपन के किस्से, आँखे नम कर जाते हैं।
ReplyDeleteआपने बहुत ही सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है।