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Monday, 5 September 2016

मेरी यादों का गांव

एक गांव जो बसता है कहीं यादों मे मेरी
जहाँ अटखेलियां करती थीं गर्मी की छुटियाँ कई

पहाड़ों की ओट में वो खुशबूदार आम के बगीचे
वो घंटाघर टेहरी का वो शाम को भूतों के किस्से

खुला मैदान जो मिलता पथरीली सी पगडण्डी पे
और जा समाता था निडर बहती भागीरथी में

याद आता है गर्मी की बारिश में वो भीग जाना
नमक और प्याज़ चुरा कर कच्चे आम संग खाना

यूँ अचानक कभी आ जाता है याद ननिहाल पहाड़ों का
कहते हैं अब शीशे से पानी की तह से घंटाघर है तकता

है ढूंढता वो खोये चेहरे, नन्हे चेहरे
जो आते थे गर्मी की छुट्टियाँ बिताने को

शायद मिल जाएँ आज भी अठखेलियां करते
सरकारी बस से गुज़र पाऊँ, कभी जाऊँ तो

6 comments:

  1. वाह लिपिका, कितनी सहजता से लिखा है तुमने गर्मी की छुट्टियों का किस्सा, मन वापस बचपन में जाने को मचल उठा।

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  2. अरे वाह!बचपन की यादों की बस एक झलक दिखाई। मन तरस ज़रूर गया लेकिन मचला नहीं, बस यादों के पंख लगा कर उड़ गया और उन विस्मृत गलियों को पहचानने की कोशिश कर रहा है।थोड़ा और विस्तार से भेंट करानी थी अपने बचपन से। Good show.

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    1. कोशिश जारी रहेगी :)

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  3. लिपिका जी बहुत ही बढ़िया वर्रण किया है आपने अपने गांव का. पहाड़ो में शाम के वक्त भूतो के किस्से बड़ी आम बात है. टिहरी का घंटाघर पानी की तह में - दिल को छु गए यह शब्द.

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  4. बचपन के किस्से, आँखे नम कर जाते हैं।

    आपने बहुत ही सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है।

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