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Thursday, 26 January 2017

ऐ जिंदगी, जब तक हारा नही मैं, तू जीती कहाँ है।

हजारों कांटे बिछा ले तू राहों में मेरी,
तेरे कर्म से ज्यादा, मुझे अपने श्रम पे यकींन है
अपनी नाकाम कोशिशों पर न खुश हो तू इतना, ऐ जिंदगी
जब तक हारा नही मैं, तू जीती कहाँ है।

जितनी चाहे तूू दे दे मुझे रातें अंधियारी,
तेरे अंधेरों से ज्यादा मेरी रोशनी प्रबल है
होगा तुझे कलयुग के शैतान पेे भरोसा,
पर तेरे भरोसे से ज्यादा मेरी आस्था सबल है
अपने इन अंधेरों को ज़रा अभी संजो के रख जो मुझको डरा दे इनमेंं वो बल ही कहाँ है
अपनी नाकाम कोशिशों पर न खुश हो तू इतना,ऐ जिंदगी
जब तक हारा नही मैं, तू जीती कहाँ है।

कर दे मेरे सफर को तू चाहे मुश्किल पर्वतों सा,
चाहे मेरी रांहे लम्बी आसमां तक कर दे
होगा तेरा मकसद मुझे मेरी मंजिल से दूर ले जाने का
पर तूझे क्या पता, मेरा तो हठ ही है आसमान पाने का
अपनी इन राहों को थोड़ा और मुश्किल कर दे मुझेे लक्ष्य से डिगा दे इनमे वो दम ही कहाँ है
अपनी नाकाम कोशिशों पर न खुश हो तू इतना,ऐ जिंदगी
जब तक हारा नही मैं, तू जीती कहाँ है।
ऐ जिंदगी, जब तक हारा नही मैं, तू जीती कहाँ है।

हेम

2 comments:

  1. अत्यंत शक्तिपूर्ण प्रस्तुति। लिखते रहो

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  2. हे कविवर, आपने ज़िन्दगी को ललकारा है, आपकी ज़िन्दगी खुशियों से परिपूर्ण रहे!

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