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Wednesday, 15 February 2017

क्या से क्या हो गए

ढूंढते हैं उसको जिसे कहीं छोड़ आए हैं
वो मुस्कराहट, वो बेबाकपन जो कहीं भूल आए हैं
कई चेहरों का नक़ाब ओढ़े असल से जुदा हो गए
ज़िन्दगी आगे बढ़ गयी हम क्या से क्या हो गए

माथे से लेकर बिस्तर की सिलवटें जो मेरी थीं
वो चैन, वो ठहाके, वो नींदें जो मेरी थीं
कई ख्वाइशों के बोझ के तले रुबा हो गए
ज़िन्दगी आगे बढ़ गयी हम क्या से क्या हो गए

ख्यालों से लेकर हौसलों की तिशनगी थी मेरी
उन्हें पूरा करने न करने की आज़ादी थी मेरी
कई हौसलों के ज़ोर में बेनिशाँ हो गए
ज़िन्दगी आगे बढ़ गयी हम क्या से क्या हो गए

यूँ नहीं के ज़िन्दगी से कोई शिकवा है हमें
इस डोर, इस बंदिश का भी दरकार है हमें
कई आहटों के शोर में बेज़ुबान हो गए
ज़िन्दगी आगे बढ़ गयी हम क्या से क्या हो गए

10 comments:

  1. मन की व्यथा 🤔🤔
    Very well Expressed 👌🏻 👌🏻

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  2. बहुत बढ़िया।
    हम क्या से क्या हो गए...

    I think we all can relate to it... सभी का कहीं न कहीं यही हाल है।

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  3. यकीन मानिये की ये ख्याल शादी होने के बाद ही आया।
    वरना हम तो वहीँ थे बस ज़िंदगी आगे बढ़ रही थी।
    Agree with Anu jee .....Beautifully penned the feeling of almost every individual

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  4. Nicely penned, but good that life takes us along.
    सारे सपने कहीं खो गए, हाय हम क्या से क्या हो गए

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  5. उम्दा शायरी का नमूना पेश किया है आपने लिपिका जी!

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    1. अरे वाह कविता जी बोहोत दिन बाद। Thank you and welcome back

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