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Tuesday, 24 November 2015

तुम पर कविता लिखता हूँ

जब पास नहीं तुम होते हो
और मन विचलित हो जाता है
ऐसे में दिल बहलाने को
मैं तुम पर कविता लिखता  हूँ।

सूनी डगर पर, सूने सफर पर
एकांत में कभी, जब शून्य हो जाता हूँ
हज़ारों की भीड़ में,  शहर की रफ़्तार में
किसी मुड़े मोड़ पर, जब थक सा जाता हूँ
तुम्हारा साथ ऐसे में पाने को
मैं तुम पर कविता लिखता  हूँ।

नवजात की किलकारियों  पे,यौवन की मुस्कान पे
बूढ़ी दादी पे कभी, जब मोहित  हो जाता हूँ
सावन की फुहार में, फागुन की साँझ में
देवदार की सुगंध में, जब सम्मोहित हो जाता हूँ
उस  भाव को तुमसे बाँटने को प्रिये
मैं तुम पर कविता लिखता  हूँ।

मैं तुम पर कविता लिखता  हूँ
क्यों  तुम पर कविता लिखता  हूँ ?
प्रभाव से, कदाचित स्वाभाव से
लिख जाता है या लिखता हूँ ?
अनजान बन पहेली सुलझाने को
मैं फिर तुम पर कविता लिखता  हूँ।

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