यूँ रूठना के मनाना आसां न हो
यूँ भूलना के भुलाना आसां न हो
मिलने पर एक कसक पहचान की रह जाए
यूँ तोडना की टूटना आसां न हो
गर खत लिखूँ तेरे पते पर कभी
यूँ फाड़ना के नामो निशाँ न रहे
बिखेर के टुकड़े किसी सड़क पर
यूँ रौंदना के उठना आसां न हो
कहीं कभी थोड़ा भी ख़याल आजाए
धूयां सा बना उड़ा देना फलक में
मेरे वजूद को ही नेस्त नाबूत कर
यूँ छोड़ना के ढूंढना आसां न हो
Very nicely...:):)
ReplyDeleteThank you
DeleteVery nicely written...
ReplyDeleteBeautiful... दिल को छू गयी आपकी कविता।
ReplyDeleteधन्यवाद
DeleteBeautiful... दिल को छू गयी आपकी कविता।
ReplyDeleteयूँ लिखो के पड़ना आसान न हो।
ReplyDeleteShort but very well penned. Keep blogging
:)
Deleteधन्यवाद
Deleteबहुत गहरी बात कह गयी तुम...बहुत ही अच्छा लिखा है...👍
ReplyDeleteनिस्तनाबूत हो गयी मेरी हर कोशिश उन्हें मनानें की,
न जानें कहाँ से सीख आये हैं वो, अदा ये रूठ जाने की...😊
सुबोध जी आपका अंदाज़े तारीफ बोहोत उम्दा है। This blog would be richer if you contribute to it. Thank you for your appreciation
Deleteबहुत सुंदर कविता लिखी है आपने लिपिका जी!
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