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Wednesday, 28 September 2016

यूँ रूठना

यूँ रूठना के मनाना आसां न हो
यूँ भूलना के भुलाना आसां न हो
मिलने पर एक कसक पहचान की रह जाए
यूँ तोडना की टूटना आसां न हो

गर खत लिखूँ तेरे पते पर कभी
यूँ फाड़ना के नामो निशाँ न रहे
बिखेर के टुकड़े किसी सड़क पर
यूँ रौंदना के उठना आसां न हो

कहीं कभी थोड़ा भी ख़याल आजाए
धूयां सा बना उड़ा देना फलक में
मेरे वजूद को ही नेस्त नाबूत कर
यूँ छोड़ना के ढूंढना आसां न हो

12 comments:

  1. Beautiful... दिल को छू गयी आपकी कविता।

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  2. Beautiful... दिल को छू गयी आपकी कविता।

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  3. यूँ लिखो के पड़ना आसान न हो।
    Short but very well penned. Keep blogging

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  4. बहुत गहरी बात कह गयी तुम...बहुत ही अच्छा लिखा है...👍

    निस्तनाबूत हो गयी मेरी हर कोशिश उन्हें मनानें की,
    न जानें कहाँ से सीख आये हैं वो, अदा ये रूठ जाने की...😊

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    1. सुबोध जी आपका अंदाज़े तारीफ बोहोत उम्दा है। This blog would be richer if you contribute to it. Thank you for your appreciation

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  5. बहुत सुंदर कविता लिखी है आपने लिपिका जी!

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