नैनीताल की वो शाम
याद है मुझे आज भी जाड़े की वो ठिठुरती हुई शाम।
धीरे से आकर उसने जब छुआ था मुझको।
काँप उठीं थी रूह मेरी उसके स्पर्श मात्र से।
धुँध कोहरे में नज़र कुछ भी ना आया था।
मन ही मन तस्वीर बनने लगी थीं उसकी नज़र के सामने।
घुमा था मैं संग उसके डाल हाथो में हाथ।
वो पत्तों की चरमराहट थी या उसके क़दमों की आहट।
वो झील के पानी के सुर थे या उसकी कसमसाती आवाज़।
वो मेरे शहर के हवा की खुशबू थीं या उसके पास होने का एहसास।
कुछ कदम चले तो थे साथ साथ हम उन देवदार के पेड़ो के बीच।
कुछ मैंने कहा था कुछ उसने कहा था।
शायद .....
वो मेरी यादें थीं जो उस शाम थीं मेरे साथ।
लेकिन अब भी कुछ कहना और सुनना बाकी है।
तुम्हें कुछ और सुनाना अभी बाकी है।
सुना है शामें अब भी वैसी ही हैं।
पर अब ना वो ठिठुरन है ना है स्पर्श का एहसास।
कुछ तो था हमारे दरमियाँ फिर आज क्यों इतनी दूरीं हैं।
लौट आओ ऐसी किसी शाम में क्योंकि ये तुम्हारे बिना अधूरीं हैं।
👏👏👏👏👏 खूबसूरत वर्णन नैनीताल की शाम का।
ReplyDeleteजीं, हमारा शहर है ही इतना सुन्दर
Deleteविरह का भाव है इस नैनीताल की शाम में।
ReplyDeleteभरोषा भी है
Deleteपहले प्यार से जुड़ा हुआ लगता है। नैनीताल का मौसम और उनका साथ..........
ReplyDeleteभाई कल्पना है, बस शब्दो को जोड़ने की कोशिश की हैं
DeleteWah wah...
ReplyDeleteWah wah...
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteमुझे तो अभी से सर्दी लगने लगी, इतना सुंदर वर्णन किया है आपने अजय जी नैनीताल की शाम का. शायद इस कविता को शाब्दिक चित्र कहते हैं. :)
ReplyDeleteअबकी बार नैनीताल जाएँ तो महशूश कीजियेगा
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