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Wednesday, 7 September 2016

नैनीताल की वो शाम

नैनीताल की वो शाम

याद है मुझे आज भी जाड़े की वो ठिठुरती हुई शाम।
धीरे से आकर उसने जब छुआ था मुझको।
काँप उठीं थी रूह मेरी उसके स्पर्श मात्र से।
धुँध कोहरे में नज़र कुछ भी ना आया था।
मन ही मन तस्वीर बनने लगी थीं उसकी नज़र के सामने।
घुमा था मैं संग उसके डाल हाथो में हाथ।
वो पत्तों की चरमराहट थी या उसके क़दमों की आहट।
वो झील के पानी के सुर थे या उसकी कसमसाती आवाज़।
वो मेरे शहर के हवा की खुशबू थीं या उसके पास होने का एहसास।
कुछ कदम चले तो थे साथ साथ हम उन देवदार के पेड़ो के बीच।
कुछ मैंने कहा था कुछ उसने कहा था।
शायद .....
वो मेरी यादें थीं जो उस शाम थीं मेरे साथ।
लेकिन अब भी कुछ कहना और सुनना बाकी है।
तुम्हें कुछ और सुनाना अभी बाकी है।
सुना है शामें अब भी वैसी ही हैं।
पर अब ना वो ठिठुरन है ना है स्पर्श का एहसास।
कुछ तो था हमारे दरमियाँ फिर आज क्यों इतनी दूरीं हैं।
लौट आओ ऐसी किसी शाम में क्योंकि ये तुम्हारे बिना अधूरीं हैं।

11 comments:

  1. 👏👏👏👏👏 खूबसूरत वर्णन नैनीताल की शाम का।

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    1. जीं, हमारा शहर है ही इतना सुन्दर

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  2. विरह का भाव है इस नैनीताल की शाम में।

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  3. पहले प्यार से जुड़ा हुआ लगता है। नैनीताल का मौसम और उनका साथ..........

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    1. भाई कल्पना है, बस शब्दो को जोड़ने की कोशिश की हैं

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  4. मुझे तो अभी से सर्दी लगने लगी, इतना सुंदर वर्णन किया है आपने अजय जी नैनीताल की शाम का. शायद इस कविता को शाब्दिक चित्र कहते हैं. :)

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    1. अबकी बार नैनीताल जाएँ तो महशूश कीजियेगा

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