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Tuesday, 1 November 2016

दे दुश्मन को दे दे धुनकर

दे दुश्मन को दे दे धुनकर
है है हम में है है ये हुनर
अब बिगुल बजा मस्तक पे सजा
तलवारों से ले ले हुंकार

इतिहास ने डरना सीखा नहीं
और भविष्य डरा सकता नहीं
दुश्मन का सीना छलनी कर
के वर्तमान की है ये पुकार

कल कल करती नदियों से बहा
वो खून जो दुश्मन का मद है
दे दे आहुति दुश्मन की
धरती माँ का है ये उधार

उन पेड़ों की शाखायों को
जिनके पत्ते उसने तोड़ दिए
उन हाथों की हिम्मत फिर न हो
यूँ दुश्मन का तू कर संहार

निश्छल माँ की छाती पर
जिसने अगणित वार किए
उस दुस्साहस का चीर कर
दुगनी शक्ति से कर प्रहार

चुप्पी को कमज़ोरी समझ
जिसने मेरा अपमान किया
उस मन मातिष्क के धारी का
ध्वस्त हो यूँ कर उपचार

दे दुश्मन को दे दे धुनकर
है हम में है है ये हुनर

11 comments:

  1. बहुत खूब सिखा है...हम तुम्हारे लिंखनें के हुनर को दाद देते हैं...👍

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  2. लिपिका जी बहुत ख़ूब। आप भी वीर रस पर 👍👍

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  3. Penned in Heroic.....valliant flavour this time.
    Good one

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    1. सही है, 'दे दुश्मन को दे दे धुन कर'कविता की ताल और लय को पढ़ कर एक बारगी ऐसा लगा कि दुश्मन की पीठ पर अच्छी धुलाई और धुनाई चल रही है. जोश पूरा है शेष फिर

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  4. लिपिक, बहुत अच्छा... इस कविता के शब्द काफी जोश ला देते हैं... I actually enjoyed reading it aloud.

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    1. ... and my favourite line is

      दे दुश्मन को दे दे धुनकर

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