दे दुश्मन को दे दे धुनकर
है है हम में है है ये हुनर
अब बिगुल बजा मस्तक पे सजा
तलवारों से ले ले हुंकार
इतिहास ने डरना सीखा नहीं
और भविष्य डरा सकता नहीं
दुश्मन का सीना छलनी कर
के वर्तमान की है ये पुकार
कल कल करती नदियों से बहा
वो खून जो दुश्मन का मद है
दे दे आहुति दुश्मन की
धरती माँ का है ये उधार
उन पेड़ों की शाखायों को
जिनके पत्ते उसने तोड़ दिए
उन हाथों की हिम्मत फिर न हो
यूँ दुश्मन का तू कर संहार
निश्छल माँ की छाती पर
जिसने अगणित वार किए
उस दुस्साहस का चीर कर
दुगनी शक्ति से कर प्रहार
चुप्पी को कमज़ोरी समझ
जिसने मेरा अपमान किया
उस मन मातिष्क के धारी का
ध्वस्त हो यूँ कर उपचार
दे दुश्मन को दे दे धुनकर
है हम में है है ये हुनर
बहुत खूब सिखा है...हम तुम्हारे लिंखनें के हुनर को दाद देते हैं...👍
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteलिपिका जी बहुत ख़ूब। आप भी वीर रस पर 👍👍
ReplyDelete:)समय की मांग है
DeletePenned in Heroic.....valliant flavour this time.
ReplyDeleteGood one
Thanks
Deleteसही है, 'दे दुश्मन को दे दे धुन कर'कविता की ताल और लय को पढ़ कर एक बारगी ऐसा लगा कि दुश्मन की पीठ पर अच्छी धुलाई और धुनाई चल रही है. जोश पूरा है शेष फिर
Deleteधन्यवाद :)
Deleteलिपिक, बहुत अच्छा... इस कविता के शब्द काफी जोश ला देते हैं... I actually enjoyed reading it aloud.
ReplyDelete... and my favourite line is
Deleteदे दुश्मन को दे दे धुनकर
☺ thanks
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