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Saturday, 1 October 2016

दुश्मन की धरती पर उतर, उसको उसकी ही धरा में गाङ दिया।

न वक्तव्यों के पहाड़ बने, न शब्दों के ही बाण चले।
मुँह तोड जवाब देने को, इस बार तो अपने जवान चले॥
बातों का था समय कहाँ, हमने समय को भी पछाड़ दिया।
दुश्मन की धरती पर उतर, उसको उसकी ही धरा में गाड दिया ॥
समय समय पर, छुप छुप कर, हमारे घर में घुस घुस कर, उसने हमको ललकारा था।
हिम्मत थी उसकी बढी हुई, क्योंकि अतीत में अब तक कभी, हमने न थप्पड़ एक भी मारा था॥
बंधे हाथ थे जवानों के, परन्तु ह्रदय आकुलता में धड़कता था।
एक सिर के बदले चार सिर लाने को भुजबल फडकता  था॥
दुश्मन खुश था इसी सोच मे, कि चुप हैं, सोए हैं या ये सभी नपुंसक हैं।
परन्तु ज्ञात उसे नही था, की जंजीरों में जकङ दो जितना सिंह तो सदैव ही हिंसक है॥
खुले हाथ जंजीरें टूटी, ह्रदय आकुलता को नवीन ज्वाल दिया।
             और फिर
दुश्मन की धरती पर उतर, उसको उसकी ही धरा में गाड दिया ॥

हेम शर्मा

2 comments:

  1. आपका बोहोत बोहोत स्वागत है इस प्लेटफार्म पर एक अप्रतिम रचना के साथ। लिखते रहिये।

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  2. वीर रस के कवि श्री हेम शर्मा जी!

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