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Friday, 8 December 2017

ओ माँ


कई बार लिखना चाहा

पर लिख ना सका। 

तेरी यादों और बातों को

शब्दों में कस ना सका। 

 

लगता है बड़ा हो गया हूँ 

बचपन अपना भूल गया। 

इतना सबकुछ लिख डाला पर 

तुझपर लिखना भूल गया। 

 

रोज़ ख़यालों में आतीं हों 

कस कर गले लगा लो ना। 

तेरा ही तो बच्चा हूँ माँ

लोरी आज सुना दो ना। 

 

जिस उँगली को पकड़कर सीखा

इस जग का इक इक पाठ। 

पढ़ा रहा हूँ सबको वोहि

दो दूनि चार और चार दूनि आठ। 

 

तेरी कही हुई इक इक बात 

आज भी याद आती है। 

फिर भी ग़लती कर देता हूँ

और वो सबक़ बन जाती है। 

 

अपने पोते और पोती को भी

कुछ ऐसा पाठ पढ़ा दो ना।

तेरा ही तो बच्चा हूँ माँ

लोरी आज सुना दो ना।

2 comments:

  1. The poem reaches to every heart. It's for everyone.. nicely penned. Loved it

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